Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान

धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिये और रोती हुई बोली -- क्या करूँ लाला, जी नहीं मानता। भगवान् ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गयी। अब सबर नहीं होता। हाय रे मेरा हीरा!
सोना पानी लायी। पटेश्वरी ने होरी के मुँह पर पानी के छींटे दिये। कई आदमी अपनी-अपनी अँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठंडी पड़ गयी थी। पटेश्वरी को भी चिन्ता हुई; पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे। धनिया अधीर होकर बोली -- ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला, कभी नहीं।
पटेश्वरी ने पूछा -- रात कुछ खाया था?
धनिया बोली -- हाँ, रोटियाँ पकायी थीं; लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ, जान रखकर काम करो; लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।
सहसा होरी ने आँखें खोल दीं और उड़ती हुई नज़रों से इधर-उधर ताका। धनिया जैसे जी उठी। विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली -- अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गये थे।
होरी ने कातर स्वर में कहा -- अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।
धनिया ने स्नेह में डूबी भत्र्सना से कहा -- देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे!
पटेश्वरी ने हँसकर कहा -- धनिया तो रो-पीट रही थी।
होरी ने आतुरता से पूछा -- सचमुच तू रोती थी धनिया?
धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेल कर कहा -- इन्हें बकने दो तुम। पूछो, यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे?
पटेश्वरी ने चिढ़ाया -- तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।
होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा -- पगली है और क्या। अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाये रखना चाहती है।
दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गयी। उसी वक़्त गोबर एक मज़दूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखायी दिया। गाँव के कुत्ते पहले तो भूँकते हुए उसकी तरफ़ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे।
रूपा ने कहा -- भैया आये, और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन क़दम आगे बढ़ी; पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गयी। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गयी। गोबर ने माँ-बाप के चरण छूए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गयी। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखे, उसका मुख देखे, उसका हृदय देखे, उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था, गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देखकर मानो उसके जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है; मगर होरी ने मुँह फेर लिया था।
गोबर ने पूछा -- दादा को क्या हुआ है, अम्माँ?
धनिया घर का हाल कहकर उसे दुखी न करना चाहती थी। बोली -- कुछ नहीं है बेटा, ज़रा सिर में दर्द है। चलो, कपड़े उतरो, हाथ-मुँह धोओ? कहाँ थे तुम इतने दिन? भला इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी। आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आँखें फूट गयीं। यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन आयेगा और कब तुम्हें देखूँगी। कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुनकर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिन?
गोबर ने शमार्ते हुए कहा -- कहीं दूर नहीं गया था अम्माँ, यह लखनऊ में तो था।
'और इतने नियरे रहकर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी! '
उधर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोलकर चीज़ का बाँट-बखरा करने में लगी हुई थीं; लेकिन झुनिया दूर खड़ी थी; उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा है। गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार किया है, आज वह उसका बदला लेगी। असामी को देखकर महाजन उससे वह रुपये वसूल करने को भी व्याकुल हो रहा है, जो उसने बट्टेखाते में डाल दिये थे। बच्चा उन चीज़ों की ओर लपक रहा था और चाहता था, सब-का-सब एक साथ मुँह में डाल ले; पर झुनिया उसे गोद से उतरने न देती थी। सोना बोली -- भैया तुम्हारे लिए आईना-कंघी लाये हैं भाभी!
झुनिया ने उपेक्षा भाव से कहा -- मुझे ऐना-कंघी न चाहिए। अपने पास रखे रहें।
रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली -- ओ हो! यह तो चुन्नू की टोपी है।

और उसे बच्चे के सिर पर रख दिया। झुनिया ने टोपी उतारकर फेंक दी। और सहसा गोबर को अन्दर आते देखकर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में चली गयी। गोबर ने देखा, सारा सामान खुला पड़ा है। उसका जी तो चाहता है पहले झुनिया से मिलकर अपना अपराध क्षमा कराये; लेकिन अन्दर जाने का साहस नहीं होता। वहीं बैठ गया और चीज़ें निकाल-निकाल, हर-एक को देने लगा, मगर रूपा इसलिए फूल गयी कि उसके लिए चप्पल क्यों नहीं आये, और सोना उसे चिढ़ाने लगी, तू क्या करेगी चप्पल लेकर, अपनी गुड़िया से खेल। हम तो तेरी गुड़िया देखकर नहीं रोते, तू मेरा चप्पल देखकर क्यों रोती है? मिठाई बाँटने की ज़िम्मेदारी धनिया ने अपने उपर ली। इतने दिनों के बाद लड़का कुशल से घर आया है। वह गाँव-भर में बैना बटवायेगी। एक गुलाब-जामुन रूपा के लिए ऊँट के मुँह में जीरे के समान था। वह चाहती थी, हाँडी उसके सामने रख दी जाय, वह कूद-कूद खाय। अब सन्दूक़ खुला और उसमें से साड़ियाँ निकलने लगीं। सभी किनारदार थीं; जैसी पटेश्वरी लाला के घर में पहनी जाती हैं, मगर हैं बड़ी हलकी। ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन चलेंगी! बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे पहनें। उनकी मेहरियों को बैठने और सोने के सिवा और कौन काम है। यहाँ तो खेत-खलिहान सभी कुछ है। अच्छा! होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक दुपट्टा भी है। धनिया प्रसन्न होकर बोली -- यह तुमने बड़ा अच्छा किया बेटा! इनका दुपट्टा बिलकुल तार-तार हो गया था।

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